मैं ”आह” भरूँ तो हाए करे,
”बेचैन” लिखूं बेचैन हो तू ..
फिर बेचैनी का ”बे” काटूं ,
तुझे ”चैन” ज़रा सा हो जाए..
अभी ”ऐन” लिखूं तू सोचे मुझे,
फिर ”शीन” लिखूं तेरी नींद उड़े..
जब ”क़ाफ़” लिखूं तुझे कुछ-कुछ हो,
मैं ”इश्क़” लिखूं तुझे हो जाए।

इस गाने को सुनकर उर्दू से इश्क़ होना लाज़मी है और दूसरी तरफ शेर-ओ-शायरी के ज़रिये कुछ यूँ हाल ए दिल बयाँ करना..

होंठों ने सब बातें छुपा कर रखी,                                आँखों में ये हुनर कभी आया ही नही। 

अगर आपके सामने कोई उर्दू ज़बां में बात करे और उसके लफ़्ज़ों के मा’नी अगर आपको ना भी पता हों तो भी उसे रोकने को जी नहीं चाहेगा, किसी शीरे सी कान में घुल जाती है उर्दू। इसी मसर्रत को किसी ने क्या कमाल कहा है

अजब लहजा है उस की गुफ़्तुगू का,                                ग़ज़ल जैसी ज़बाँ वो बोलता है।

यक़ीनन मेरी बातों में ये खुशबू ना होती,                      अगर मेरी ज़बाँ उर्दू न होती।

 

इस ज़बाँ की तासीर ऐसी है कि इससे तआरुफ़ रखने वाले के पास अगर कोई अकादमिक इल्म ना भी हो तब भी वह मोहज़्ज़ब यानि तालीमयाफ़्ता ही कहा जाता है। इस ज़बां की ख़ूबसूरती का आलम यह है कि दो लफ़्ज़ ग़र किसी अंधेरे कमरे में गूंज जाएं तो फ़ानूस की शमां सी रौशनी हो जाए।

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा,                                    किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।

हिंदुस्तानी फ़िल्मी गानों में भी उर्दू की तारीफ़ में कसीदे लिखे गए हैं। ‘वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, जिसकी ज़बां उर्दू की तरह’ यानि यार की तमाम ख़ासियतों को तफ़सील से बताते हुए जब बारी उसकी ज़बां की आएगी तो उसमें उर्दू का होना लाज़मी है।
हिंदुस्तान की आज़ादी में एहम किरदार रहा

हिंदुस्तान की आज़ादी में उर्दू ज़बां के किरदार को नकारा नहीं जा सकता। उस दौर के उर्दू अखबारों, लेखकों, शायरों ने उर्दू ज़बां के जरिये लोगों में आज़ादी का एक अलग ही जज़्बा पैदा कर दिया था

उर्दू के इंकलाब ज़िंदाबाद और सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है, ने ऐसा जोश पैदा किया की वो आज़ादी का मंत्र बन गया।

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